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Home धर्म और ज्योतिष

क्या है कांवड़ यात्रा का इतिहास, कब शुरु हुई, कैसे शुरु हुई, कौन था पहला कांवड़िया?

Khabar Devbhoomi Desk by Khabar Devbhoomi Desk
July 16, 2021
in धर्म और ज्योतिष, बड़ी खबर, राष्ट्रीय समाचार
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क्या है कांवड़ यात्रा का इतिहास, कब शुरु हुई, कैसे शुरु हुई, कौन था पहला कांवड़िया? ये वो तमाम सवाल हैं जो आजकल शायद आपके भी मन में भी आते होंगे। आइए पढ़ते हैं इन सवालों के जवाब।


kanwar yatra

आमतौर पर कांवड़ यात्रा श्रावण मास यानि सावन में होती है, जो ग्रेगोरियन कैलेंडर के अनुसार जुलाई का वो समय होता है जबकि मानसून अपनी बारिश से पूरे देश को भीगा रहा होता है. इसकी शुरुआत श्रावण मास की शुरुआत से होती है और ये 13 दिनों तक यानि श्रावण की त्रयोदशी तक चलती है. इसका संबंध गंगा के पवित्र जल और भगवान शिव से है. इस बार ये यात्रा 22 जुलाई से प्रस्तावित थी.

 

सावन के महीने में कांवड़ यात्रा के लिए श्रृद्धालु उत्तराखंड के हरिद्वार, गोमुख और गंगोत्री पहुंचते हैं. वहां से पवित्र गंगाजल लेकर अपने निवास स्थानों के पास के प्रसिद्ध शिव मंदिरों में उस जल से चतुर्दशी के दिन उनका जलाभिषेक करते हैं. दरअसल कांवड़ यात्रा के जरिए दुनिया की हर रचना के लिए जल का महत्व और सृष्टि को रचने वाले शिव के प्रति श्रृद्धा जाहिर की जाती है. उनकी आराधना की जाती है. यानि जल और शिव दोनों की आराधना.

कांवड़ यात्रा का इतिहास क्या है

अगर प्राचीन ग्रंथों, इतिहास की मानें तो कहा जाता है कि पहला कांवड़िया रावण था. वेद कहते हैं कि कांवड़ की परंपरा समुद्र मंथन के समय ही पड़ गई. तब जब मंथन में विष निकला तो संसार इससे त्राहि-त्राहि करने लगा. तब भगवान शिव ने इसे अपने गले में रख लिया. लेकिन इससे शिव के अंदर जो नकारात्मक उर्जा ने जगह बनाई, उसको दूर करने का काम रावण ने किया.

 

रावण ने तप करने के बाद गंगा के जल से पुरा महादेव मंदिर में भगवान शिव का अभिषेक किया, जिससे शिव इस उर्जा से मुक्त हो गए. वैसे अंग्रेजों ने 19वीं सदी की शुरुआत से भारत में कांवड़ यात्रा का जिक्र अपनी किताबों और लेखों में किया. कई पुराने चित्रों में भी ये दिखाया गया है.

लेकिन कांवड़ यात्रा 1960 के दशक तक बहुत तामझाम से नहीं होती थी. कुछ साधु और श्रद्धालुओं के साथ धनी मारवाड़ी सेठ नंगे पैर चलकर हरिद्वार या बिहार में सुल्तानगंज तक जाते थे और वहां से गंगाजल लेकर लौटते थे, जिससे शिव का अभिषेक किया जाता था. 80 के दशक के बाद ये बड़े धार्मिक आयोजन में बदलने लगा. अब तो ये काफी बड़ा आयोजन हो चुका है.

भगवान शिव को प्रिय है सावन का महीना, ऐसे करिए पूजा
कितने कांवड़िए हर साल

आंकड़े कहते हैं कि वर्ष 2010 और इसके बाद हर साल करीब 1.2 करोड़ कांवड़िए पवित्र गंगाजल लेने हरिद्वार आते हैं और फिर इसे अपने माफिक शिवालयों में लेकर जाते हैं. वहां इस जल से भगवान शिव को पूजा – अर्चना के बीच नहलाते हैं.

इसे कांवड़ यात्रा क्यों कहते हैं

क्योंकि इसमें आने वाले श्रृद्धालु चूंकि बांस की लकड़ी पर दोनों ओर टिकी हुई टोकरियों के साथ पहुंचते हैं और इन्हीं टोकरियों में गंगाजल लेकर लौटते हैं. इस कांवड़ को लगातार यात्रा के दौरान अपने कंधे पर रखकर यात्रा करते हैं, इसलिए इस यात्रा कांवड़ यात्रा और यात्रियों को कांवड़िए कहा जाता है. पहले तो लोग नंगे पैर या पैदल ही कांवड़ यात्रा करते थे लेकिन अब नए जमाने के हिसाब से बाइक, ट्रक और दूसरे साधनों का भी इस्तेमाल करने लगे हैं.

क्या उत्तराखंड से जल लेना जरूरी है

आमतौर पर परंपरा तो यही रही है लेकिन आमतौर पर बिहार, झारखंड और बंगाल या उसके करीब के लोग सुल्तानगंज जाकर गंगाजल लेते हैं और कांवड़ यात्रा करके झारखंड में देवघर के वैद्यनाथ मंदिर या फिर बंगाल के तारकनाथ मंदिर के शिवालयों में जाते हैं. एक मिनी कांवड़ यात्रा अब इलाहाबाद और बनारस के बीच भी होने लगी है.

माना तो ये जाता है कि श्रावण की चतुर्दशी के दिन किसी भी शिवालय पर जल चढ़ाना फलदायक है लेकिन आमतौर पर कांवड़िए मेरठ के औघड़नाथ, पुरा महादेव, वाराणसी के काशी विश्वनाथ मंदिर, झारखंड के वैद्यनाथ मंदिर और बंगाल के तारकनाथ मंदिर में पहुंचना ज्यादा पसंद करते हैं. कुछ अपने गृहनगर या निवास के करीब के शिवालयों में भी जाते हैं.


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